ओशो की डायरी से :3:


  • मैं खोजता था तो मौन से बड़ा कोई शास्त्र नहीं पा सका। और शास्त्र खोजे तो पाया कि शास्त्र व्यर्थ हैं, और मौन ही सार्थक है।
  • कहां जा रहे हो? जिसे खोजते हो,वह दूर नहीं निकट है।और जो निकट है,उसे पाने को यदि यात्रा की तो उसके पास नहीं,उसके दूर ही निकल जाओगे। ठहरो और देखो। निकट को पाने के लिए ठहरकर देखना ही पर्याप्त है। 
  • मुक्ति न तो प्रार्थना से पाई जाती है,न पूजा से, न धर्म-सिद्धांतों में विश्वास से। मुक्ति तो पाई जाती है अमूर्च्छित जीवन से। इसलिए मैं कहता हूँ कि प्रत्येक विचार और प्रत्येक कर्म में अमूर्च्छित होना ही प्रार्थना है,पूजा है और साधना है।
  • उसे सोचो जिसे कि तुम सोच ही नहीं सकते हो और तुम सोचने के बाहर हो जाओगे।सोचने के बाहर हो जाना ही स्वयं में आ जाना है।
  • जीवन के विरोध में निर्वाण मत खोजो।वरन जीवन को ही निर्वाण बनाने में लग जाओ। जो जानते हैं वे यही करते हैं। डो-झेन के प्यारे शब्द हैं- "मोक्ष के लिए कर्म मत करो,बल्कि समस्त कर्मों को ही मौका दो कि वे मुक्तिदायी बन जाएं।" यह हो जाता है, ऐसा मैं अपने अनुभव से कहता हूँ। और जिस दिन यह संभव होता है,उस दिन जीवन एक पूरे खिले हुए फूल की भांति सुंदर हो जाता है और सुवास से भर जाता है। 
  • क्या तुम ध्यान करना चाहते हो? तो ध्यान रखना कि ध्यान में न तो तुम्हारे सामने कुछ हो,न पीछे कुछ हो। अतीत को मिट जाने दो और भविष्य को भी। स्मृति और कल्पना- दोनों को शून्य होने दो। फिर न तो समय होगा और न आकाश होगा। उस क्षण जब कुछ भी नहीं होता है,तभी जानना कि तुम ध्यान में हो। महामृत्यु का यह क्षण ही नित्य जीवन का क्षण भी है।
  • ध्यान के लिए पूछते हो कि क्या करें? कुछ भी न करो- बस शांति से श्वास-प्रश्वास के प्रति जागो। होशपूर्वक श्वास पथ को देखो। श्वास के आने-जाने के साक्षी रहो। यह कोई श्रमपूर्ण चेष्टा न हो वरन् शांत और शिथिल- विश्रामपूर्ण बोधमात्र हो। और फिर तुम्हारे अनजाने ही, सहज और स्वाभाविक रूप से, एक अत्यंत प्रसादपूर्ण स्थिति में तुम्हारा प्रवेश होगा।इसका भी पता नहीं चलेगा कि कब तुम प्रविष्ट हो गए हो। अचानक ही तुम अनुभव करोगे कि तुम वहां हो जहां कि कभी नहीं थे।
  • मैं जो सीखा था,उसे भूला,तब उसे पा सका जो कि अकेला ही सीखने योग्य है, लेकिन सीखा नहीं जा सकता है। क्या सत्य को पाने के लिए सत्य के संबंध में जो सीखा है,उसे भुलने की तुम्हारी तैयारी है? यदि हाँ तो आओ सत्य के द्वार तुम्हारे लिए खुले हुए हैं। 
  • सत्य जाना तो जा सकता है,लेकिन न तो समझा जा सकता है और न समझाया ही जा सकता है। 
  • सत्य आकाश की भांति है- अनादि और अनंत और असीम। क्या आकाश में प्रवेश का कोई द्वार है? तब सत्य में भी कैसे हो सकता है? पर यदि हमारी आँखें ही बंद हों तो आकाश नहीं है और ऐसा ही सत्य के संबंध में भी है। आँखों का खुला होना ही द्वार है और आँखों का बंद होना ही द्वार का बंद होना है।

टिप्पणियाँ

  1. .

    @--उसे सोचो जिसे कि तुम सोच ही नहीं सकते हो और तुम सोचने के बाहर हो जाओगे।सोचने के बाहर हो जाना ही स्वयं में आ जाना है।....

    बहुत ऊंची बात ! अत्यंत प्रेरणादायी वचन ! आभार मनोज जी , इन अनमोल मोतियों को यहाँ प्रस्तुत करने के लिए।

    .

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