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वह अकेला आदमी ::1 ::

आज वह अपने जीवन की 95वीं वर्ष गाँठ के छोर पर खड़ा अपने जीवन-प्रवाह के अतीत खंड को निहार रहा था।जब से होश सम्हाला था,तब से अब तक की जीवन-यात्रा के दृश्य उसकी आँखों के सामने से चलचित्र की तरह दौड़े जा रहे थे। वह न उनका मूल्यांकन कर रहा था और न ही उसे अपने जीवन के अतीत से कोई लगाव ही रह गया था। बस वह तो निरपेक्ष भाव से उन सब घटनाओं को साक्षी बना देख रहा था। बचपन के आठ वर्ष एक छोटे से गाँव में बीते। इन आठ सालों में उसके मन पर जो प्रभाव पड़ा...उससे वह आज तक प्रभावित है। उसकी दार्शनिकता उस छोटे से गाँव में ही फलने-फूलने लगी थी, जब उसने अपनी माँ से रात को खेतों में शौच जाते समय,अपने साथ चलते हुए चाँद को देख कर माँ से सवाल पूछ बैठा था कि यह चाँद हमारे साथ-साथ क्यों चल रहा है?  जीवन के मूल प्रश्न तभी से उसके कोमल मनस-पटल पर उठने लगे थे। जीवन क्या है? मैं इस संसार में क्यों हूँ?  मरने पर क्या होता है? आदमी मर कर कहाँ चला जाता है? सबसे पहले मरते हुए उसने अपने एक पड़ौसी को देखा था। उसका नाम रामजा था। बहुत ही पेटू था वह। लोगों से माँग-माँग कर चवन्नियाँ इकट्ठी किया करता था,और जब कोई

नई कहानी

(यशपाल जी ने नई कहानी को परिभाषित करते हुए यह कहानी लिखी थी : प्रस्तुत है यह कहानी आपके समक्ष) मुफस्सिल की पैसेंजर ट्रेन चल पड़ने की उतावली में फुंकार रही थी. आराम से सेकंड क्लास में जाने के लिए दाम अधिक लगते हैं. दूर तो जाना नहीं था. भीड़ से बचकर,एकांत में नई कहानी के सम्बन्ध में सोच सकने और खिड़की से प्राकृतिक दृश्य देख सकने के लिए टिकट सेकंड क्लास का ही ले लिया. गाड़ी छूट रही थी. सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझ कर जरा दौड़ कर उसमें चढ़ गए.अनुमान के प्रतिकूल डिब्बा निर्जन नहीं था.एक बर्थ पर लखनऊ की नवाबी नस्ल के एक सफेदपोश सज्जन बहुत सुविधा से पालथी मारे बैठे थे. सामने दो ताजे-चिकने खीरे तौलिए पर रखे थे.डिब्बे में हमारे सहसा कूद जाने से सज्जन की आँखों में एकांत चिंतन में विघ्न का असंतोष दिखायी दिया. सोचा,हो सकता है,यह भी कहानी के लिए सूझ की चिंता में हों या खीरे-जैसी अपदार्थ वस्तु का शौक करते देखे जाने के संकोच में हों. नवाब साहब ने संगति के लिए उत्साह नहीं दिखाया. हमने भी उनके सामने की बर्थ पर बैठ कर आत्म-सम्मान में आँखे चुरा ली. ठाली बैठे,कल्पना करते रहने

गुड्डो

(किशोर युवती के मन को संजोती एक प्यारी सी,मासूम सी कहानी--गुड्डो, गुलज़ार की लिखी यह कहानी पढ़ने लायक है)  कई बार उसे खुद भी ऐसा लगा कि वो अपनी उम्र से ज्यादा बड़ी हो गयी है। जब वो आठवीं में थी दसवीं जमात की लड़कियों की तरह बात करती थी। और नवीं में आने के बाद तो उसे ऐसा लगा जैसे बिल्कुल बड़ी दीदी की तरह कॉलेज में पढ़ने लग गयी है। उन्हीं की तरह उसने अपनी डायरी लिखनी शुरु कर दी थी। उन्हीं की तरह वो भी मूडी हो गयी थी। उन्हीं की तरह घंटों शीशे के सामने बैठी सिंगार करती रहती। गयी बार माँ ने टोका तो उसे बुरा लगा। "हुँह! दीदी को तो कुछ कह नहीं सकती,मुझे डाँट देती हैं।" मन ही मन बड़बड़ाकर वो चुप हो गयी। लेकिन उस दिन वो फूट पड़ी जिस दिन दीदी ने उसके लिए नया फॅराक बनाया। "मैं नहीं पहनती फॅराक। खुद तो अच्छी अच्छी साड़ियाँ ले आती हैं। मेरे लिए ये फॅराक बना दिया है।" "गुड्डो-तू बड़ी हो जाए तो..." "गुड्डो,गुड्डो मत कहा करो मुझे। यह मेरा नाम नहीं है।" "अच्छा कुसुम जी आप बड़ी हो जाएँगी तो साड़ी भी ला देंगे।" "मैं अभी छोटी ह

अहंकार:एक रहस्यवादी कहानी

एक नदी है नाम है उसका मोत्जू। वैसे तो वह भी अन्य नदियों की तरह ही है। परंतु उसमें कुछ खास है तो वह है उसका शीतल जल और उसके किनारों पर सुंदर हरियाली। कहतें हैं यह दिव्य नदी है जो रूप बदल सकने में सक्षम है और कभी भी अपना रूप आकार बदल कर आस-पास के जीवन को प्रभावित कर सकती है। इसी नदी के एक तट पर रहता है संतसू किसान। यह किसान भी अपने आप में सबसे अलग है क्योंकि  इसकी आवश्यकताएं सीमित हैं और चेहरे पर एक खुशी हर पल छायी रहती है। वह अपनी जरूरत  का सामान मोत्जू नदी के तट से लगते अपने एकमात्र खेत से पूरी कर लेता है। भूख लगती तो खेत के अन्न-फल खा कर तृप्त हो जाता है। प्यास लगती तो मोत्जू का शीतल जल पी कर प्यास बुझा लेता है। इस प्रकार मोत्जू नदी और संतसू का परस्पर गहन संबंध है। एक बार मोत्जू नदी ने संतसू किसान की परीक्षा लेनी चाही कि देखूं संतसू मुझे कितना प्रेम करता है। गर्मियों के दिन हैं। संतसू अपने खेत में काम कर रहा है। प्यास लगी तो वह मोत्जू के तट पर आया और शीतल जल पीने लगा। तभी मोत्जू नदी ने अपना दिव्य रूप धारण किया और संतसू से पूछा, यदि मैं न होती तो क्या होता?  संतसू ने अपने स्

उच्च आत्मा की ओर:ओशो का आह्वाहन

हिंदुस्तान में दो विपरीत ढंग के प्रयोग पचास सालों से चले। (वर्ष 1967). एक प्रयोग गांधी ने किया। एक प्रयोग श्री अरविंद ने। गांधी ने एक-एक मनुष्य के चरित्र को ऊपर उठाने का प्रयोग किया। उसमें गांधी सफल होते हुए दिखाई पड़े,लेकिन बिलकुल असफल हो गए। जिन लोगों को गांधी ने सोचा था कि इनका चरित्र मैंने उठा लिया,वे बिलकुल मिट्टी के पुतले साबित हुए। जरा पानी गिरा और सब रंग-रौगन बह गया। बीस साल में रंग-रौगन बह गया। वह हम सब देख रहे हैं। कहीं कोई रंग-रौगन नहीं है। वह जो गांधी ने पोतपात कर तैयार किया था,वह वर्षा में बह गया। जब तक पद की वर्षा नहीं हुई थी तब तक उनकी शकलें बहुत शानदार मालूम पड़ती थी और उनके खादी के कपड़े बहुत धुले हुए दिखाई पड़ते थे और उनकी टोपियां ऐसी लगती थी कि मुल्क को ऊपर उठा लेंगी। लेकिन आज वे ही टोपियां मुल्क में भ्रष्टाचार की प्रतीक बन गई हैं। गांधी ने एक प्रयोग किया था,जिसमें मालूम हुआ कि वे सफल हो रहे हैं,लेकिन बिलकुल असफल हो गए। गांधी जैसा प्रयोग बहुत बार किया गया और हर बार असफल हो गया।  श्री अरविंद एक प्रयोग करते थे जिसमें वे सफल होते हुए मालूम पड़े,लेकिन उनकी दिशा बिल

स्त्री की सुंदरता का रहस्य

शायद आपको पता नहीं होगा,स्त्री पुरुषों से ज्यादा सुंदर क्यों दिखाई पड़ती है? शायद आपको खयाल न होगा,स्त्री के व्यक्तित्व में एक राउन्डनेस,एक सुडौलता क्यों दिखाई पड़ती है? वह पुरुष के व्यक्तित्व में क्यों नहीं दिखाई पड़ती? शायद आपको खयाल में न होगा कि स्त्री के व्यक्तित्व में एक संगीत,एक नृत्य,एक इनर डांस,एक भीतरी नृत्य क्यों दिखाई पड़ता है जो पुरुष में नहीं दिखाई पड़ता।  एक छोटा-सा कारण है। एक छोटा सा,इतना छोटा है कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते। इतने छोटे-से कारण पर व्यक्तित्व का इतना भेद पैदा हो जाता है। मां के पेट में जो बच्चा निर्मित होता है उसके पहले अणु में चौबीस जीवाणु पुरुष के होते है और चौबीस जीवाणु स्त्री के होते हैं। अगर चौबीस-चौबीस के दोनों जीवाणु मिलते हैं तो अड़तालीस जीवाणुओं का पहला सेल(कोष्ठ)निर्मित होता है। अड़तालीस सेल से जो प्राण पैदा होता है वह स्त्री का शरीर बन जाता है। उसके दोनों बाजू 24-24 सेल के संतुलित होते हैं।  पुरुष का जो जीवाणु होता है वह सैंतालिस जीवाणुओं का होता है। एक तरफ चौबीस होते हैं,एक तरफ तेइस। बस यहीं संतुलन टूट गया और वहीं से व्यक्तित्व का भी।

बुद्ध की संगति का लोभ

ऐसी कथा है कि एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिष्य सारिपुत्र बुद्ध से दूर-दूर बैठता था। जबकि स्वभावतः लोग पास-पास बैठने कि कोशिश करते हैं। सारिपुत्र छिप-छिप कर बैठता था, कहीं झाड़ की आड़ में,कहीं भीड़ की आड़ में। और दस हजार शिष्यों में बहुत आसान था छिप- छिप कर बैठ जाना। एक दिन आखिर बुद्ध ने उसे पकड़ ही लिया  और कहा कि सारिपुत्र,यह तुम क्या कर रहे हो? सारिपुत्र ने कहा ,मुझे छोड़ दो, मुझे छिपा रहने दो। पर बुद्ध ने कहा,मामला क्या है? सारिपुत्र ने कहा कि मै बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं होना चाहता। बुद्ध ने कहा,तुम पागल हो गए हो? तुम मेरे पास आए इसलिए थे कि बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओ। उसने कहा,आया था वह मेरी गलती थी। जाने वाला नहीं हूँ; क्योंकि मै देखता हूँ रोज-रोज जो जो बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हैं उनसे आप कहते हैं,जाओ, अब मेरे सन्देश को दूर दूर पहुंचाओ। मै तो रोज-रोज डुबकी लूँगा,मै बुद्धत्व छोड़ सकता हूँ; लेकिन आपमें डुबकी लेना नहीं छोड़ सकता हूँ। अगर वचन देते हों कि मेरे बुद्धत्व के बाद भी मुझे इन चरणों में बैठने का हक़ होगा तो मै छिपना छोड़ दूँ। अन्यथा मै छिपता रहूँगा,अन्यथा मै बचता रहूँगा। म

शून्यता

( ध्यानमय जीवन के लिए अब तक हमने पिछली पोस्टों में सरलता,सजगता की बात की है। आज की इस पोस्ट में प्रस्तुत है ध्यानमय जीवन  का तीसरा सूत्र: शून्यता)  तीसरा सूत्र है: शून्यता। जितना शून्य होंगे उतनी सजगता गहरी होगी। सरलता उत्पन्न होती है सजगता से     और सजगता उत्पन्न होती है शून्यता से। शून्यता चरम बिंदु है। शून्यता साधना का केंद्र बिंदु है। शून्य हो जाएं। शून्य होने का मतलब है जो हो रहा है चारों तरफ, उसके प्रति मरना सीखें। एक छोटी सी कहानी कहूं तो शायद समझ आ जाए। जापान  में एक संन्यासी हुआ। एक ऐसा दरिद्र भिखारी,जो टोकियो राजधानी में एक नीम के झाड़ के नीचे पड़ा रहता था। वर्ष आए और गए,वह वहीं पड़ा रहा। लाखों हजारों लोग उसे मानते थे और उसे श्रद्धा देते थे। स्वयं बादशाह भी उसे श्रद्धा देता था और उसका आदर करता था। एक दिन बादशाह आया और उसके चरण छुए और कहा कि कृपा करें,मेरे महल में चलें। यहां पड़े रहने से क्या? बरसात भी है,शरीर आपका वृद्ध हो गया है,धूप आती है,तकलीफ होती है,सर्दी आती है। मुझ पर कृपा करें और तुरंत मेरे महल में चलें। साधु ने अपनी चटाई लपेटी और खड़ा हो गया। राजा बहुत हैरा

सजगता से सरलता : साक्षी की साधना

अखंड जीवन ही सरल जीवन है। समग्र-इन्टीग्रेटेड-जीवन ही सरल जीवन है। इसे पहचानने का रास्ता है: सजगता। सजगता का अर्थ है:अवेयरनेस,होश,भान,आत्मभान। जिस व्यक्ति का आत्मभान जितना जागृत होगा वह उतना ही सरल और अखंड हो जाता है। आत्मभान का क्या अर्थ है? होश का क्या अर्थ है? आत्मभान या अमूर्च्छा या अप्रमाद का अर्थ है--जीवन के जितने भी अनुभव हैं उनके साथ एक न हो जाएं;उनसे दूर बनें रहें,उनके द्रष्टा बनें रहें। जैसे मैं इस भवन में बैठा हूं। प्रकाश जला दिया जाए तो भवन में प्रकाश भर जाएगा। प्रकाश मुझे घेर लेगा। दो भूलें मैं कर सकता हूं। यह भूल कर सकता हूं कि मैं समझ लूं कि मैं प्रकाश हूं,क्योंकि प्रकाश कमरे में भरा हुआ है। फिर प्रकाश बुझा दिया जाए तो अंधकार आ जाएगा। फिर मैं यह भूल कर सकता हूं कि मैं अंधकार हूं। यह भूल है। क्यों? क्योंकि प्रकाश आया तब भी मैं यहां था;प्रकाश चला गया तब भी मैं यहां यहां था। अंधकार आया तब भी मैं यहां हूं। अंधकार चला जाए तब भी मैं यहां रहूंगा। तो मेरा जो मैं है,वह न तो प्रकाश है,न अंधकार है। सुख आते हैं,चले जाते हैं। दु:ख आते हैं,चले जाते हैं। सम्मान मिलता है,चला जाता है। अ

अखंड का बोध

एक भारतीय साधु सारी दुनिया की यात्रा करके वापस लौटा था। वह भारत आया और हिमालय की एक छोटी सी रियासत में मेहमान हुआ। उस रियासत के राजा ने साधु के पास जाकर कहा,"मैं ईश्वर से मिलना चाहता हूं। मैंने बहुत से लोगों के प्रवचन सुने हैं,बहुत सी बातें सुनी हैं,सब मुझे बकवास मालूम होती है। मुझे नहीं मालूम होता है कि ईश्वर है और जब भी साधु-संन्यासी मेरे गांव में आते हैं,तब उनके पास जाता हूं और उनसे पूछता हूं। अब मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ईश्वर के संबंध में मुझे कोई व्याख्यान नहीं सुनने हैं,मैंने काफी सुन लिए हैं। तो आपसे यह पूछने आया हूं कि अगर ईश्वर है,तो मुझे मिला सकते हैं?" वह संन्यासी बैठा चुपचाप सुन रहा था। वह बोला-"अभी मिलना है या थोड़ी देर ठहर सकते हो?" राजा एकदम अवाक् रह गया। उसको आशा नहीं थी कि कोई आदमी कहेगा कि अभी मिलना चाहते हैं कि थोड़ी देर ठहर सकते हैं। राजा ने समझा कि समझने में भूल हो गई होगी। संन्यासी कुछ गलत समझ गया है। राजा ने दोबारा कहा-"शायद आप ने ठीक से नहीं समझा। मैं ईश्वर की बात कर रहा हूं,परमेश्वर की।" संन्यासी ने कहा-मैं तो उसके सिवा

तादात्म्य और चित्त की जटिलता

(पिछली पोस्ट में हमने जाना कि मनुष्य की सरलता खोती है उसके बनाए आदर्शों से,अनुकरण और अनुसरण से,अपने से अलग कुछ और बनने की कोशिश में। इस सरलता के खोने में एक और तत्त्व जिम्मेवार है और वह है तादात्म्य,आइए देखें कि तादात्म्य कैसे हमें जटिल बनाता है और खंडित करता है।) यह स्मरण रखें कि जीवन में जितना कम द्वंद्व,जितना कम संघर्ष,जितने कम व्यर्थ के तनाव,व्यर्थ के खंड कम हों,उतनी सरलता उत्पन्न होगी। मनुष्य जितना अखंड हो उतनी सरलता उपलब्ध होती है। हम खंड-खंड हैं। और हम अपनी अखंडता को अपने हाथों से तोड़े हुए हैं। हम अपनी अखंडता को कैसे तोड़ देते हैं?  हम अपनी अखंडता को तादात्म्य से,आइडिन्टटी से तोड़ देते हैं। होता क्या है? मैं एक घर में पैदा हुआ। उस घर के लोगों ने मुझे एक नाम दे दिया और मैंने समझ लिया कि वह नाम मैं हूं। मैंने एक आइडिन्टटी कर ली। मैंने समझ लिया कि यह नाम मैं हूं। फिर मैं कहीं शिक्षित हुआ। फिर मुझे कोई उपाधि मिल गई। फिर मैंने उन उपाधियों को समझ लिया कि ये उपाधियां मैं हूं। फिर किसी ने मुझे प्रेम किया,तो मैंने समझ लिया कि लोग मुझे प्रेम करते हैं और वह प्रेम की तस्वीर मैंन

सरलता

ओशो ने चित्त की शांति के लिए तीन सूत्रों की बात बार-बार की है। ये सूत्र हैं:सरलता,सजगता और शून्यता। आज  की इस पोस्ट में हम जानेंगे कि सरलता क्या है? सरलता क्या नहीं है? सरलता के मार्ग क्या हैं?सरलता कैसे आए? जो भी बाहर से ओढ़ा जाता है वह हमें जटिल बनाता है। बाहर से ओढ़ी गई सादगी,सरलता,विनम्रता मनुष्य को जटिल बनाती है और जो लोग भीतर जटिल होते हैं अक्सर बाहर सादगी,सरलता और विनम्रता का वेश बना लेते हैं;केवल इसलिए नहीं कि दुनिया को धोखा दे सकें बल्कि स्वयं को भी धोखा दे सकें। दुनिया में जटिल लोग सरल होने का अभ्यास कर लेते हैं। इस ओढ़ी हुई सरलता का कोई मूल्य नहीं। कोई अत्यंत विनम्रता प्रदर्शित करे,उससे वह सरल नहीं हो जाता है। क्योंकि विनम्रता के पीछे अक्सर अहंकार खड़ा रहता है और विनम्र आदमी हाथ जोड़कर सिर तो झुकाता है,लेकिन अहंकार नहीं झुकता है और विनम्र आदमी को यह भाव बना रहता है कि मुझसे ज्यादा और कोई भी विनम्र नहीं है और उसको यह भी आकांक्षा होती है कि मेरी विनम्रता और मेरी सरलता स्वीकृत की जाए और वह सम्मानित हो। सरलता को इस प्रकार अभ्यास से ऊपर से साधना आसान है,लेकिन उसका कोई मूल्य न

चित्त की झील में तूफान

सुबह-सुबह एक झील के किनारे से नौका छूटी। कुछ लोग उस पर सवार थे। नौका ने झील में थोड़ा ही प्रवेश किया होगा कि जोर का तूफान आ गया और बादल घिर आए। नौका डगमगाने लगी। आज की नौका नहीं थी,दो हजार वर्ष पहले की थी। उसके डूबने का डर पैदा हो गया। जितने लोग उस नौका पर थे,सारे लोग घबरा गए। प्राणों का संकट खड़ा हो गया। लेकिन उस समय भी उस नौका पर एक आदमी शांत सोया हुआ था। उन सारे लोगों ने जाकर उस आदमी को जगाया और कहा कि क्या सो रहे हो और कैसे शांत बने हो!!!प्राण संकट में हैं,मृत्यु निकट है और नौका बचने की कोई उम्मीद नहीं है। तूफान बड़ा है और दोनों किनारे दूर हैं।  उस शांत सोए हुए व्यक्ति ने आंखें खोली और कहा--कितने कम विश्वास के तुम लोग हो,कितनी कम श्रद्धा है तुममें। कहो झील से कि शांत हो जाए। वे लोग हैरान हुए कि झील किसी के कहने से शांत होती है! यह कैसी पागलपन की बात है! लेकिन वह शांत सोया हुआ आदमी उठा और झील के पास गया और उसने जाकर झील से कहा,झील! शांत हो जाओ! और आश्चर्यों का आश्चर्य कि झील शांत हो गई।  यह आदमी जीसस क्राइस्ट था और झील गैलीली झील थी और उनके साथ दस-बारह मित्र थे। यह कहानी ए

अनजाना जीवन

हमारे चित्त की पूरी व्यवस्था ऐसी है कि वह कहता है कि कहीं चलो। पूरा चित्त ही इस तनाव से बना है कि कहीं चलो-वहां जहां कहीं दूर मंजिल है। मन जीवित रहता है तनाव में। यह तनाव गहरे में कहीं पहुंचने का तनाव है-चाहे धन हो,चाहे यश हो,चाहे मोक्ष। मन उस वक्त मर जाता है जिस वक्त आपने कहा--कहीं नहीं जाना है। जहां हम खड़े हैं यदि वहीं हम अपनी सारी डिजायर को,सारे विचार को,सारी कामना को रोक लें तो हम जो हैं वह हमें पता चल जाएगा। मजे की बात है कि मंजिल यहीं मौजूद है,अभी इसी वक्त। कहीं जाना नहीं है खोजने,सिर्फ ठहर जाना है।...असल में मजा यह है कि रास्ता मात्र बाहर जाने का होता है,क्योंकि अंदर तो हम हैं। लेकिन विचार बाहर कि यात्रा करता है।विचार में आप यहीं होते हुए भी कलकत्ता में हो सकते हैं। इसलिए भीतर जाने का सवाल नहीं है। हम बाहर किन-किन रास्तों से चले गए हैं,उन रास्तों को छोड़ देने का सवाल है असल में। विचार चला गया है वासना के वाहन पर बैठ कर और हम वहीं हैं यानी यह आधारभूत सत्य खयाल में आ जाना चाहिए कि हम वहीं हैं,वासना के वाहन पर बैठ कर विचार चला गया है।विचार न जाए तो आप फौरन पाएंगे

अतीत की मृत्यु और शून्यता

एक संन्यासी ने अपने शिष्य को एक दिन कहा कि तू बहुत दिन मेरे पास रहा है। अब मैं तुझे कहीं और भेजता हूं। ताकि मैंने तुझसे जो कहा है वह और ठीक से समझ ले। तो उसको एक दूसरे संन्यासी के पास भेजा कि तू जा और उसके पास रह और उसकी जीवन चर्या को देख। वह वहां गया। सुबह से शाम तक उसने दिनचर्या को देखा। उसमें कुछ भी नहीं था। वह संन्यासी एक छोटी-सी सराय का रखवाला था। वह संन्यासी भी नहीं था। साधारण कपड़े पहनता था। लेकिन उसके गुरु ने उसे वहां भेजा,तो गया। वह सुबह से शाम तक देखता रहा,वहां तो कुछ भी नहीं था। वह आदमी है,रखवाला है,रखवाली करता है। सराय साफ करता है। मेहमान ठहरते हैं,उनके कमरे साफ करता है। मेहमान जाते हैं,उनके कमरे साफ करता है। उसने दो-चार दिन देखा तो ऊब गया। वहां तो कोई बात ही नहीं थी,चर्या की कोई बात ही नहीं थी। चलते वक्त उसने कहा,सब देख लिया,जिसके लिए मेरे गुरु ने भेजा था। सिर्फ दो बातें मैं नहीं देख पाया हूं: रात को सोते समय आप क्या करते हैं,वह मुझे पता नहीं है और सुबह उठते वक्त आप क्या करते हैं,वह मुझे पता नहीं। यह मुझे बता दें। मैं वापस लौट जाऊं। संन्यासी ने कहा,कुछ नहीं करता।

बचें हर चार सेकंड में डिमेंशिया की दस्तक से

इस समय विश्व में महामारी के स्तर पर एक रोग उभर रहा है जिसके दस प्रतिशत से अधिक शिकार भारत में हैं। रोग का नाम है डिमेंशिया। यह एक सिंड्रोम है जिसके विकास में मस्तिष्क के बहुत से विकार सहायक होते हैं। इस सिंड्रोम के चलते धीरे-धीरे या कभी बहुत तेजी से मस्तिष्क का क्षय होने लगता है और अंतत: व्यक्ति को समय और स्थान का बोध समाप्त होने लगता है,भाषा कभी समझ आती है और कभी नहीं,लोगों को पहचानने की शक्ति कम या बिल्कुल समाप्त हो जाती है,दैनिक क्रिया-कलापों को करना लगभग असंभव हो जाता है। इस समय पूरे विश्व में लगभग साढ़े तीन करोड़ लोग डिमेंशिया से ग्रस्त हैं,जिनमें से सैंतीस लाख लोग भारत में हैं। वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार सत्तर लाख लोग हर साल डिमेंशिया के शिकार हो रहे हैं,अर्थात हर चार सैकिंड में विश्व में कहीं न कहीं कोई इसकी चपेट में आ रहा है। डब्लू एच ओ की इस नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार सन्2030 तक छह करोड़ और 2050 तक कोई पंद्रह करोड़ लोग विश्व में डिमेंशिया से ग्रस्त होंगे। सबसे अधिक क्षति भारत,चीन और ब्राज़ील की होगी क्योंकि अपवाद छोड़कर यह रोग 60 वर्ष की आयु

मजनू की आंख

मजनू को उसके गांव के राजा ने पकड़वा लिया था। गांव भर में चर्चा थी कि वह पागल हो गया है लैला के लिए। उसने बार-बार लैला को देखने की कोशिश की। बड़ी मुश्किल में पड़ा। लैला बहुत साधारण लड़की थी। फिर भी मजनू पागल हो गया। राजा ने मजनू को बुलाया और कहा,"तू पागल तो नहीं है! लैला बड़ी साधारण लड़की है। मैंने बहुत सुंदर लड़कियां तेरे लिए बुला कर रखी हैं,उनको देख और जो तुझे पसंद हो उसके साथ तेरा विवाह कर दें।लेकिन लैला को भूल जा। लैला बड़ी साधारण लड़की है।" मजनू हंसने लगा। उसने राजा से कहा कि शायद आपको पता नहीं,लैला को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए। मेरी आंख है आपके पास? राजा ने कहा,"तेरी आंख मेरे पास कैसे हो सकती है!!!" तो मजनू ने कहा,"फिर छोड़िए खयाल,आप लैला को न देख पाएंगे। लैला को मजनू देख सकता है। मजनू की आंख ही लैला को देख सकती है।"  -0-

चित्त की शांति और युद्ध

एक मुसलमान खलीफा था-उमर। सात वर्षों से एक दुश्मन के साथ उसकी लड़ाई चलती रही। यह संघर्ष बहुत भयंकर हो गया था। किसी के जीतने की कोई उम्मीद नहीं मालूम पड़ती थी। ऐसा नहीं लगता था कि कोई निर्णायक फैसला हो सकेगा। लेकिन सातवें वर्ष में निर्णायक फैसला होने के करीब आ गया। हाथ में आ गया वह क्षण जब निर्णय हो सकता था। उमर ने दुश्मन को गिरा दिया युद्ध के मैदान में और उसकी छाती पर सवार हो गया। वह कंधे में बंधे हुए भाले को निकाल कर दुश्मन की छाती पर भोंकने को है कि नीचे पड़े दुश्मन ने उमर के मुंह पर थूक दिया। मरता भी तो कुछ कर सकता है। आखरी अपमान तो वह कर ही सकता था। उमर एक क्षण रुक गया और अपने भाले को वापिस रख लिया और रूमाल से मुंह पोंछ लिया। उसने नीचे पड़े दुश्मन से कहा-"दोस्त,अब लड़ाई कल सुबह फिर शुरू होगी।" लेकिन नीचे पड़ा दुश्मन कहने लगा-"पागल हो गए हो? इस मौके की तलाश में तुम सात वर्षों से थे,आज तुम्हारे पैरों के नीचे पड़ा हूं। तुम छाती पर सवार हो,मैं निहत्था हूं। मेरा हथियार छूट गया है। मेरा घोड़ा मर गया है। इस मौके को मत छोड़ो। यह मौका दुबारा आएगा,इसकी कोई उम्मीद न करो। भ

पाखंड और स्वधर्म

‎" न कोई 'कर्म', न कोई 'किस्मत', न कोई 'ऐतिहासिक आदेश'- 'तुम्हारा जीवन तुम पर नि र्भर है' | 'उत्तरदायी ठहराने के लिए कोई परमात्मा नहीं', 'सामाजिक पद्धति या सिद्धांत नहीं है' | 'ऐसी स्थिति में तुम इसी क्षण सुख में रह सकते हो या दुख में' | 'स्वर्ग अथवा नरक कोई ऐसे स्थान नहीं हैं जहाँ तुम मरने के बाद पहुँच सको', 'वे अभी इसी क्षण की संभावनाएँ हैं' | 'इस समय कोई व्यक्ति नरक में हो सकता है, अथवा स्वर्ग में' | 'तुम नरक में हो सकते हो और तुम्हारे पड़ोसी स्वर्ग में हो सकते हैं' | 'एक क्षण में तुम नरक में हो सकते हो और दूसरे ही क्षण स्वर्ग में' | 'जरा नजदीक से देखो', 'तुम्हारे चारों ओर का वातावरण परिवर्तित होता रहता है' | 'कभी-कभी यह बहुत बादलों से घिरा होता है' और 'प्रत्येक चीज धूमिल और उदास दिखाई देती है' और 'कभी-कभी धूप खिली होती है तो बहुत सुंदर और आनंदपूर्ण लगता है' | 'दुनिया का कोई भी धर्म, संगठन और व्यक्ति तुम्हें आनंदित नहीं कर

स्व व परमात्मा के बीच शांति

हेनरी थोरो अमेरिका का एक बहुत बड़ा विचारक हुआ। वह मरने के करीब था। वह कभी चर्च में नहीं गया था। उसे कभी किसी ने प्रार्थना करते नहीं देखा था। मरने का वक्त था,तो उसके गांव का पादरी उससे मिलने गया। उसने सोचा यह मौका अच्छा है,मौत के वक्त आदमी घबड़ा जाता है। मौत के वक्त डर पैदा हो जाता है,क्योंकि अनजाना रास्ता है मृत्यु का। न मालूम क्या होगा? उस वक्त भयभीत आदमी कुछ भी स्वीकार कर सकता है। मौत का शोषण धर्मगुरु बहुत दिनों से करते रहे हैं। इसलिए तो मंदिरों,मस्जिदों में बूढ़े लोग दिखाई पड़ते हैं। पादरी ने हेनरी थोरो से जाकर कहा,"क्या तुमने अपने और परमात्मा के बीच शांति स्थापित कर ली है? क्या तुम दोनों एक दूसरे के प्रति प्रेम से भर गए हो?" हेनरी थोरो मरने के करीब था। उसने आंखें खोली और कहा,"महाशय,मुझे याद नहीं पड़ता है कि मैं उससे कभी लड़ा भी हूं। मेरा उससे कभी झगड़ा नहीं हुआ तो उसके साथ शांति स्थापित करने का सवाल कहां? जाओ,तुम शांति स्थापित करो,क्योंकि जिंदगी में तुम उससे लड़ते रहे हो। मुझे तो उसकी प्रार्थना करने की जरूरत नहीं है। मेरी जिंदगी ही प्रार्थना थी।" क

स्व का मालिक या शव का मालिक

स्वामी रामतीर्थ टोकियो गए थे। वहां एक बड़े भवन में आग लग गई थी। उस भवन के बाहर हजारों लोग इकट्ठे थे। रामतीर्थ भी खड़े होकर देखने लगे। भवन का मालिक खड़ा था। उसकी आंखें पथरा गई थी। वह देख रहा था,लेकिन उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। जिंदगी भर जो बनाया था,वह जल रहा था। नौकर-चाकर,आसपास के पड़ोस के मित्र सामान लेकर बाहर आ रहे थे। तिजोरियां निकाली जा रही थी। हीरे-जवाहरात निकाले जा रहे थे। कीमती वस्त्र निकाले जा रहे थे। अमूल्य चीजें थी,उस धनपति के पास। वे सब बाहर निकाली जा रही थी। फिर लोगों ने मालिक से कहा कि एक बार भीतर जाया जा सकता है। अगर कोई जरूरी चीजें रह गई हों,तो हम भीतर से ले आएं। उस आदमी ने कहा-"मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या हो रहा है,क्या आ गया है,क्या छूट गया है? मुझे कुछ भी पता नहीं है। तुम ऐसे ही जा कर देख लो,जो दिखाई पड़े,ले आओ। जिसका सब जल रहा हो उसे क्या दिखाई पड़ सकता है? जिसका सब जल रहा हो,वह क्या हिसाब किताब रख सकता है कि क्या छूट गया,क्या बच गया? ये सब फुरसत की बातें हैं,आराम की बाते हैं। सब जलता हो तो ये सब हिसाब-किताब काम नहीं पड़ते।" वे लोग भीतर वापिस ग

जीवन-वीणा का संगीत

बुद्ध का एक शिष्य था-श्रोण। वह बड़ा राजकुमार था। वह संन्यासी हो गया। उसने बहुत भोग भोगा था। उसके पास बड़े महल थे। फिर जब वह संन्यासी हो गया,तब बुद्ध के भिक्षु पूछने लगे कि जिसके पास सब था,उसने सब क्यों छोड़ दिया? बुद्ध ने कहा-"तुमको पता नहीं है जिंदगी उलटी है। जिसके पास सब होता है,वे छोड़ने को उत्सुक हो जाते हैं। गरीब,अमीर होना चाहता है और अमीर,अमीर होने के बाद समझ पाता है कि गरीब होने का मजा कुछ और ही है। धनवान,धन से भागने लगते हैं और निर्धन,धन पाने की यात्रा करते हैं। अज्ञानी सोचते हैं कि ज्ञान मिल जाएगा तो न मालूम क्या मिल जाएगा और जो ज्ञानी हैं,वे ज्ञान छोड़कर अज्ञानी हो जाते हैं और कहते हैं-हम कुछ भी नहीं जानते! इस आदमी के पास बहुत था,इसलिए सब छोड़कर वह भाग रहा है।" बुद्ध के भिक्षु कहने लगे- "लेकिन हमने सुना है कि यह तो फूलों के रास्तों पर चलता था और अब नंगे पैर कांटों के रास्ते पर चलना बहुत दुखद होगा।" बुद्ध ने कहा- "तुमको कुछ भी पता नहीं। तुम तो कांटों से बचते हो,वह तो कांटों की तलाश करेगा।" और यही हुआ। वह जो बहुत सुंदर राजकुमार था,वस्त्र भी छ

अज्ञात की यात्रा का साहस

एक सूफी बोध-कथा मुझे स्मरण आती है। एक छोटी सी नदी सागर से मिलने को चली है। नदी छोटी हो या बड़ी,सागर से मिलने की प्यास तो बराबर ही होती है,छोटी नदी में भी और बड़ी नदी में भी। छोटा-सा झरना भी सागर से मिलने को उतना ही आतुर होता है,जितनी कोई बड़ी गंगा हो। नदी के अस्तित्व का अर्थ ही सागर से मिलन है। नदी भाग रही है सागर से मिलने को,लेकिन एक रेगिस्तान में भटक गई,एक मरुस्थल में भटक गई। सागर तक पहुचने की कोशिश व्यर्थ मालूम होने लगी, और नदी के प्राण संकट में पड़ गए। रेत नदी को पीने लगी। दो-चार कदम चलती है,और नदी खोती जाती है,और सिर्फ गीली रेत ही रह जाती है।  नदी बहुत घबड़ा गई। सागर तक पहुंचने के सपने का क्या होगा? नदी ने रुककर, चीख कर रेगिस्तान की रेत से पूछा कि क्या मैं सागर तक कभी भी नहीं पहुंच पाऊंगी? क्योंकि रेगिस्तान अनंत मालूम पड़ता है, और चार कदम मैं चलती नहीं हूं कि रेत में मेरा पानी खो जाता है,मेरा जीवन सूख जाता है!!!मैं सागर तक पहुंच पाऊंगी या नहीं?  रेत ने कहा कि सागर तक पहुंचने का एक उपाय है। ऊपर देख, हवाओं के बवंडर जोर से उड़े चले जा रहे हैं। रेत ने कहा कि अगर तू भी हव