अज्ञात की यात्रा का साहस

एक सूफी बोध-कथा मुझे स्मरण आती है। एक छोटी सी नदी सागर से मिलने को चली है। नदी छोटी हो या बड़ी,सागर से मिलने की प्यास तो बराबर ही होती है,छोटी नदी में भी और बड़ी नदी में भी। छोटा-सा झरना भी सागर से मिलने को उतना ही आतुर होता है,जितनी कोई बड़ी गंगा हो। नदी के अस्तित्व का अर्थ ही सागर से मिलन है।

नदी भाग रही है सागर से मिलने को,लेकिन एक रेगिस्तान में भटक गई,एक मरुस्थल में भटक गई। सागर तक पहुचने की कोशिश व्यर्थ मालूम होने लगी, और नदी के प्राण संकट में पड़ गए। रेत नदी को पीने लगी। दो-चार कदम चलती है,और नदी खोती जाती है,और सिर्फ गीली रेत ही रह जाती है। 

नदी बहुत घबड़ा गई। सागर तक पहुंचने के सपने का क्या होगा? नदी ने रुककर, चीख कर रेगिस्तान की रेत से पूछा कि क्या मैं सागर तक कभी भी नहीं पहुंच पाऊंगी? क्योंकि रेगिस्तान अनंत मालूम पड़ता है, और चार कदम मैं चलती नहीं हूं कि रेत में मेरा पानी खो जाता है,मेरा जीवन सूख जाता है!!!मैं सागर तक पहुंच पाऊंगी या नहीं? 

रेत ने कहा कि सागर तक पहुंचने का एक उपाय है। ऊपर देख, हवाओं के बवंडर जोर से उड़े चले जा रहे हैं। रेत ने कहा कि अगर तू भी हवाओं की तरह हो जा,तो सागर तक पहुंच जाएगी। लेकिन अगर नदी की तरह ही तूने सागर तक पहुंचने की कोशिश की,तो रेगिस्तान बहुत बड़ा है,यह तुझे पी जाएगा। और हजारों-हजारों साल की कोशिश के बाद भी तू एक दलदल से ज्यादा नहीं हो पाएगी,सागर तक पहुंचना मुश्किल है। तू हवा की यात्रा पर निकल।

उस नदी ने कहा कि रेत!!! तू पागल तो नहीं है? मैं नदी हूं,मैं आकाश में उड़ नहीं सकती। रेत ने कहा कि तू अगर मिटने को राजी हो,तो आकाश में उड़ने का उपाय है। अगर तू तप जाए,वाष्पीभूत हो जाए,तो तू हवाओं पर सवार हो सकती है; हवाएं तेरी वाहन बन जाएंगी और तुझे सागर तक पहुंचा देंगी।

उस नदी ने कहा,मिट कर नहीं! मैं स्वयं को मिटाए बिना ही सागर से मिलने की आकांक्षा रखती हूं, स्वयं को मिटा कर नहीं। मिटकर मिलने का मजा ही क्या? अगर मैं मिट गई और सागर से मिलना भी हो गया,तो उसका सार क्या है? मैं बचते हुए,स्वयं रहते हुए सागर से मिलना चाहती हूं।

नदी की बात सुनकर रेत ने कहा,तब फिर कोई उपाय नहीं है। आज तक सागर से मिलने जो भी चला है,मिटे बिना नहीं पहुंच पाया है और जिसने स्वयं को बचाने की कोशिश की है,वह मरुस्थल में खो गया है। मैंने और बहुत सी नदियों को मरुस्थल में खोते देखा है और  कुछ नदियों को आकाश पर चढ़कर सागर तक पहुंचते भी देखा है। तू मिटने को राजी हो जा। तुझे अभी पता नहीं कि मिटकर ही तू वस्तुत: सागर हो पाएगी। 

लेकिन नदी को भरोसा कैसे आए!!! नदी ने कहा, यह मेरा अनुभव नहीं है। मिटने की हिम्मत नहीं जुटती। और फिर अगर मैं सागर से मिल भी गई मिटकर,तो सागर में मेरा होना रहेगा! मैं बचूंगी! क्या भरोसा? कैसे श्रद्धा करुं? जो मेरा अनुभव नहीं है,उसे कैसे मानूं? 

तब उस मरुस्थल की रेत ने कहा, दो ही उपाय हैं--या तो अनुभव हो,तो मानना आ जाता है; और या मानना हो तो अनुभव की यात्रा शुरु हो जाती है। अनुभव तुझे नहीं है, और बिना यह माने कि मिटकर भी तू बचेगी,तुझे अनुभव भी कभी नहीं होगा। इसे तू श्रद्धा से स्वीकार कर ले। 

परम वचन का अर्थ है,जो हमारा अनुभव नहीं है,लेकिन जिसकी हमें प्यास है। जिससे हमारा परिचय नहीं है,लेकिन जिसकी हमारे हृदय में आकांक्षा है। जिसे हमने जाना नहीं है,लेकिन जिसे खोजना है। ऐसी जिसकी अभीप्सा है,उसे कहीं न कहीं,किसी न किसी क्षण ऐसा कदम उठाना पड़ेगा, जो अज्ञात में है,अननोन में है।

- ओशो
गीता दर्शन भाग पांच,प्रवचन 1 से संकलित


टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही रोचक सूफ़ी कथा से परिचय कराया है आपने।
    सत्य की पहचान, सत्य का दर्शन और सत्य का अनुभव ही ‘हक़ीक़त’ है। इस अवस्था में साधक होता है और उसका प्रियतम (परमात्मा)। हक़ीक़त की अवस्था को प्राप्त होकर साधक आत्म-भाव संक्रमण की ओर बढ़ता है। तब सम्मिलन और एकत्व भाव ज़ोर मारने लगता है। वह ख़ुद को उसमें मिटा देना चाहता है।

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  2. मनोज जी!!
    शुभागमन.. सुस्वागतम.. अभी कल ही सुनी यह कथा प्रिय ओशो के श्रीमुख से!! आज यहाँ आपकी प्रस्तुति देखकर मन आनद से भर गया!!

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