अखंड का बोध

एक भारतीय साधु सारी दुनिया की यात्रा करके वापस लौटा था। वह भारत आया और हिमालय की एक छोटी सी रियासत में मेहमान हुआ। उस रियासत के राजा ने साधु के पास जाकर कहा,"मैं ईश्वर से मिलना चाहता हूं। मैंने बहुत से लोगों के प्रवचन सुने हैं,बहुत सी बातें सुनी हैं,सब मुझे बकवास मालूम होती है। मुझे नहीं मालूम होता है कि ईश्वर है और जब भी साधु-संन्यासी मेरे गांव में आते हैं,तब उनके पास जाता हूं और उनसे पूछता हूं। अब मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ईश्वर के संबंध में मुझे कोई व्याख्यान नहीं सुनने हैं,मैंने काफी सुन लिए हैं। तो आपसे यह पूछने आया हूं कि अगर ईश्वर है,तो मुझे मिला सकते हैं?"

वह संन्यासी बैठा चुपचाप सुन रहा था। वह बोला-"अभी मिलना है या थोड़ी देर ठहर सकते हो?" राजा एकदम अवाक् रह गया। उसको आशा नहीं थी कि कोई आदमी कहेगा कि अभी मिलना चाहते हैं कि थोड़ी देर ठहर सकते हैं। राजा ने समझा कि समझने में भूल हो गई होगी। संन्यासी कुछ गलत समझ गया है। राजा ने दोबारा कहा-"शायद आप ने ठीक से नहीं समझा। मैं ईश्वर की बात कर रहा हूं,परमेश्वर की।" संन्यासी ने कहा-मैं तो उसके सिवा किसी की बात ही नहीं करता। अभी मिलना है कि थोड़ी देर रुक सकते हैं?"

उस राजा ने कभी नहीं सोचा था कि वह ऐसा पूछेगा,तो क्या उत्तर दूंगा? उसने कहा-"आप कहते हैं तो मैं अभी ही मिलना चाहता हूं।" संन्यासी ने कहा,"तो एक काम करें; यह कागज है,इस पर थोड़ा लिख दें कि आप कौन हैं,ताकि परमात्मा तक खबर भेज दूं। क्योंकि यह तो आप मानेंगे ही कि जो आपसे भी कोई मिलने आता है,तो आप पूछ लेते हैं कौन है,क्या है?" राजा ने कहा,"यह तो ठीक है। यह तो नियमबद्ध है।" उसने अपने राज्य और भवन का पता उस संन्यासी को दिया।

वह संन्यासी हंसने लगा और उसने कहा,"दो तीन बातें पूछनी जरूरी हो गई हैं। इस कागज में जो भी आपने लिखा है,वह असत्य है।" तब राजा बोला-"असत्य! आप क्या पागलपन की बात कर रहें हैं! मैं राजा हूं और जो नाम मैंने लिखा है,वही मेरा नाम है।" संन्यासी ने कहा,"मुझे तो बिलकुल ही असत्य मालूम होता है। आप न राजा हैं और न आपने जो नाम लिखा है वह आपका है।" वह राजा बोला-"आप अजीब आदमी मालूम होते हैं। पहले तो आपने कहा कि ईश्वर से अभी मिला दूंगा। वह भी मुझे पागलपन की बात मालूम पड़ी। और दूसरे यह कि अब मैं कह रहा हूं कि मैं इस क्षेत्र का राजा हूं,मेरा यह नाम है,तो उससे इनकार करते हैं।"

संन्यासी ने कहा-"थोड़ा सोचें। अगर आपका नाम दूसरा हो तो क्या फर्क पड़ जाएगा? आपके मां-बाप ने 'आ' नाम दे दिया और यदि मैं 'बा' नाम दे देता,तो क्या फर्क पड़ जाता? आप जो थे,वही रहते कि बदल जाते? आपको अगर हम दूसरा नाम दे दें तो आप बदल जाएंगे?" उस राजा ने कहा-"नाम बदलने से मैं कैसे बदलूंगा?" संन्यासी ने कहा-"जिस नाम के बदलने से आप नहीं बदलते,निश्चित ही नाम कुछ और है,आप कुछ और हैं। आज आप उस नाम से अलग हैं और फिर आप राजा हैं,कल अगर इसी गांव में भिखारी हो जाएं तो बदल जाएंगे? फिर आप-आप नहीं रहेंगे?" राजा बोला-"मैं तो फिर भी रहूंगा। राज्य नहीं रहेगा,धन नहीं रहेगा,राजा नहीं रहेंगे,भिखारी हो जाऊंगा,मेरे पास कुछ नहीं रहेगा,लेकिन मैं तो जो हूं वही रहूंगा।" 

संन्यासी बोला-"फिर राजा होने का कोई मतलब नहीं रहा। फिर आपकी सत्ता से उसका कोई संबंध नहीं। वह तो ऊपरी खोल है,बदल जाए तो भी नहीं बदलेंगे। यह कपड़े मैं पहने हूं तो मैं यह थोड़े कहूंगा कि यह कपड़ा मैं हूं। क्यां नहीं कहूंगा? क्योंकि कपड़े दूसरे पहन लूं तब भी मैं मैं ही बना रहूंगा।" संन्यासी ने फिर कहा,"फिर राजा होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह आपका परिचय नहीं हुआ,क्योंकि जो परिचय आपने दिया है,उसके बदल जाने पर भी आप नहीं बदलते हैं। अत: आपका परिचय कुछ और होना चाहिए,जिसके बदलने पर आप न बदल जाएं,वही आप हो सकते हैं। और जब तक आप वह परिचय न देंगे तो मैं कैसे परमात्मा को कहूं कि कौन मिलने आया है,किसको मिलाऊं? परमात्मा तो मौजूद है,लेकिन मिलाऊँ किसको। मिलने वाला मौजूद नहीं है। क्योंकि मिलने वाला बंटा हुआ है-बहुत से टुकड़ों में खंडों में। वह इकट्ठा नहीं है,वह राजी नहीं है,वह खड़ा नहीं है। कौन है जो मिलना चाहता है? आप ईश्वर को खोजते हैं,लेकिन कौन हैं आप?"

अपने खंडों को इकट्ठा करना होगा। कैसे वे खंड इकट्ठे होंगे,क्योंकि अगर सच में खंड हो गए हैं तो कैसे इकट्ठे होंगे? कितने ही उनको पास लाएं तब भी वे खंड बने रहेंगे। अगर सच में ही आप खंडित हैं तो फिर अखंड नहीं हो सकते। क्योंकि खंडों को कितने ही करीब लाओ उनके बीच फिर भी फासला बना रहेगा। वैज्ञानिक कहते हैं कि दो अंगों को कितने ही करीब लाओ,फिर भी फासला दोनों के बीच बना ही रहेगा। यह ठीक ही कहते हैं,क्योंकि कितने ही करीब लाओ,बीच में फासला होगा ही। यदि फासला न हो तो दोनों एक ही हो जाएंगे। तो खंडों को कितने भी करीब लाओ अखंड नहीं बन सकते हैं,खंडों का जोड़ ही होगा।

इसका अर्थ है कि आप वस्तुत: अखंड हैं। खंड होना आपका भ्रम है। भ्रम टूट सकता है और आप इसी क्षण अखंडता को पा सकते हैं। आप खंडित हो नहीं गए हैं,खंडित मालूम हो रहे हैं। मैं एक पहाड़ पर गया था और वहां एक महल में लोग मुझे ले गए थे। एक बड़ा गुंबज था और उस गुंबज में कांच के छोटे-छोटे लाखों टुकड़े लगे थे। मैं वहां खड़ा हुआ। मुझे लाखों अपनी तस्वीरें दिखाई पड़ने लगी,टुकड़े-टुकड़े में। और फिर हमने वहां दिया जलाया तो लाख दीए जलने लगे-कांच के टुकड़े-टुकड़े में। अब अगर उस दिए को न देखूं जिसको हाथ में लिए हूं और उन कांच पर प्रतिबिंबित हजारों दीयों को देखूंगा तो मैं समझूंगा कि इस भवन में लाखों दीए जल रहे हैं और अगर मैं हाथ के दिए को देखूं तो मैं पाऊंगा कि एक ही दिया जल रहा है। 

जो व्यक्ति अपने अनुभव के दर्पण में,अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के दर्पण में क्षण-क्षण प्रवाही जीवन के दर्पण में अपनी तस्वीर को देखता है,उसे हजार-हजार टुकड़े खुद के मालूम होंते हैं। और अगर वह उनको न देखे,उसको देखे जो पीछे बैठा है,सबके अनुभवों में नहीं बल्कि अनुभोक्ता में;दृश्यों में नहीं बल्कि द्रष्टा में;जो चारों तरफ घटित हो रहा है उसमें नहीं जिसके ऊपर घटित हो रहा है उसमें,तो पाएंगे वह एक है और वहां अखंडता है। चित्त अनेक हैं,चेतना एक है। चित्त प्रतिफलित है,चेतना एक है। जिसका प्रतिफलन है उसे पकड़ना होगा। अगर उसे पकड़ने में हम समर्थ हो जाएं तो जीवन एकदम सरल हो जाएगा।

टिप्पणियाँ

  1. इस मैं का ही है ये खेल सारा
    न कुछ हमारा, न कुछ तुम्हारा
    मिटेगा जब ये भेद सारा
    तभी दिखेगा उसका नज़ारा

    जवाब देंहटाएं

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